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दोराहे पर खड़ा मुस्लिम समाज


संसद के दोनों सदनों में बारम्बार यह स्पष्टीकरण देने के बाद भी कि इस कानून का भारतीय मुस्लिम और उनकी नागरिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, देश के अधिकतर मुसलमानों का विरोध में सड़कों पर उतर आना समझ से परे लगता है

Raj Saxena 26 Jan 2020 256

 

सड़कों पर उतरे कांग्रेसियों और वामपंथियों की नागरिकता संशोधन पर प्रतिक्रिया तो समझ में आती है कि उनके राज्यसभा में बहुमत के बाद भी बीजेपी ने इस कानून के माध्यम से, देश के बहुसंख्यक समाज के धर्म से जुड़े लोगों के साथ अनेकों सिख, पारसी, ईसाई और बौद्ध दलित विदेशी नागरिकों को इस देश की नागरिकता देने की जुर्रत की है किन्तु संसद के दोनों सदनों में बारम्बार यह स्पष्टीकरण देने के बाद भी कि इस कानून का भारतीय मुस्लिम और उनकी नागरिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, देश के अधिकतर मुसलमानों का विरोध में सड़कों पर उतर आना समझ से परे लगता है।

चलो एक बार सड़कों पर उतरना माना जा सकता है कि वे अपने कट्टर नेताओं और कांग्रेस तथा वामपंथी गठबंधन के बहकावे में सड़कों पर आ गये थे किन्तु अब जब स्वयं मोदी कई बार स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं, तब भी दिल्ली में शाहीन बाग की एक सड़क पर जाम लगा कर बैठे और दिल्ली तथा देश के कुछ भागों में हर शुक्रवार देश विरोधी नारों के साथ उग्र प्रदर्शन करने वाले मुस्लिम इतने उग्र क्यों हैं। लगता है यह सब अचानक ही नहीं हो गया है। इसके पीछे देश की आजादी के बाद से देश में हिन्दू, मुसलमानों को एक दूसरे से नफरत करने और अपने अपने अस्तित्व के लिए खतरा मान लेने को विवश करने की एक सोची समझी रणनीति की निरंतरता का दुष्परिणाम है।

इस गोरखधंधे को समझने के लिए हमें इतिहास के कुछ पन्ने पलट कर  वापस 1946-47 में जाना होगा। वर्ष 1946 में 14 अगस्त को जिन्ना द्वारा हिन्दुओं और कांग्रेस पर दबाव बनाने के लिए घोषित ‘डायरेक्ट एक्शन’ भारत विभाजन की पूर्वपीठिका बनाया गया था। कांग्रेस के अहिंसक गांधी जी के पास इस पूर्व नियोजित नरसंहार का मुकाबला कर पाने का कोई हथियार था ही नहीं।  विभाजन के लिए दबाव बनाने वाले दंगों में सदियों से तथाकथित प्यार- मुहब्बत से साथ रहने वाले इन शांतिदूतों ने तलवारें निकालीं, बहुसंख्यक वर्ग की गर्दनें कलम कीं और हजारों हिन्दू औरतों की आबरू लूटी। सैंकड़ों साल साथ रहने के बाद भी जो घृणा अब तक छुपी थी वह एक ही झटके में सतह पर आ गई थी। गांधी जी का एक वाक्य का अहिंसक फार्मूला केवल यह था कि, ‘वध होने के लिए स्वयं को हत्यारों के सम्मुख प्रस्तुत कर दो’।

चूँकि भारत के हिन्दू महात्मा गांधी को, जिन्होंने पाकिस्तान में अपना सबकुछ गंवा कर दिल्ली आए कुछ शरणार्थियों को जो एक मस्जिद और एक खाली पड़े मुस्लिम के घर में शरण लेने का ‘अपराध’ कर चुके थे का पता लगने पर दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंड में सड़क पर खड़ा करवा दिया था, को राष्ट्रपिता मान चुके थे, इसलिए यह असहायता और किंकर्तव्यविमूढ़ता की विरासत आजाद भारत में निवास करने वाले अधिकाँश हिन्दुओं की मानसिकता बन गयी और हम सबने इसके दुष्प्रभाव और नकारात्मक परिणाम भी देख लिए। अपने आप को स्वयंभू शांतिदूत घोषित करने वालों ने चार लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों को मार पीट और बलात्कार कर घाटी से बाहर निकाल दिया। हम चुपचाप बैठे रहे। जगह जगह आतंकवादी घटनाएं होती रहीं और हम कुछ नहीं बोले। बम विस्फोटों में हमारे हजारों निरपराध नागरिक मारे गये हमने जुबान नहीं खोली।

हम लगातार दबाए जाते रहे और उन्हें शाबासी मिलती रही। यहाँ तक कि देश का ‘मौनीबाबा’ प्रधानमंत्री देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यक मुसलमानों का ‘पहला अधिकार’ घोषित करता रहा। राष्ट्रवाद के ऊपर कश्मीरियत को बता कर उसे देश के करदाताओं की मेहनत की कमाई से पाला जाता रहा। आतंकवादियों को भटके हुए लोग और पत्थरबाजों को नासमझ बच्चे कह कर हमें दिलासा और मुसलमानों को शह दी जाती रही, हमारे फौजी हजारों की संख्या में मरते रहे, पिटते रहे। स्थिति यहाँ तक ला दी गयी कि हर शहर के मुस्लिम बहुल मुहल्ले हिन्दुओं को पीड़ित कर हिन्दू रहित कर दिए गये। इन मुहल्लों में पुलिस भी जाने से डरने लगी। ये मुहल्ले अपराधियों की शरणस्थली बन गये। अल्पसंख्यक के नाम पर मुस्लिमों का तुष्टिकरण और हिन्दू की प्रताड़ना इस देश की नियति बन गयी। लव जेहाद शुरू हो गया और इसे आपसी प्यार का नाम देकर कानूनी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी।

तत्कालीन सरकारों की इस फूट डालो और राज करो की नीति की सफलता से कुछ जातिवादी दल भी सामने आये क्योंकि कांग्रेस ने कभी नहीं चाहा कि हिन्दुओं में एकता हो। उन्हें तो बंटा हुआ हिन्दू और हिन्दुओं के आरएसएस तथा भाजपा से डरा और स्वयं को इस देश पर राज करने की मानसिकता से ग्रसित मुस्लिम चाहिए था?। इसके लिए कांग्रेस जिस हद तक गिर सकती थी, उस हद तक गिरी और येन केन प्रकारेण साठ वर्षों तक अपनी सत्ता बचाने में सफल रही। यहाँ तक कि कई बार उसने कट्टरपंथी और आतंकवाद समर्थक मुस्लिम पार्टियों से मिल कर भी सरकार बनाई। कांग्रेस की इस नीति की सफलता से प्रेरित होकर कुछ जातिवादी राजनैतिक संगठन बने और उन्होंने मुस्लिमों को कांग्रेस से अधिक रियायतें देकर अपनी ओर मिलाया। शिक्षा के नाम पर मुहल्ले मुहल्ले मदरसे खुले जो सरकारी वजीफे पर मुस्लिम बच्चों को काफिरों से नफरत और उनकी गर्दन काटने को धार्मिक कार्य बता कर हिन्दुओं से नफरत करने वाला जेहादी बनाने लगे रामभक्तों पर गोलियां चलने लगीं, ‘तिलक-तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ के नारे गली-गली गूँजने लगे। किन्तु हिन्दुओं ने करवट नहीं बदली। यह सब देख और समझ कर मुस्लिम वर्ग ने भी अपनी अहमियत समझी और वह राजनैतिक पार्टियों को अपनी शर्तें मनवाने लगा। आरएसएस और भाजपा को खुले आम गरियाने लगा। इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि देश में मुसलमानों की शाही जिन्दगी देख कर पाकिस्तान से कुछ कम और बांग्ला देश से मुस्लिमों का रेला अपने देश से अच्छी और देश के प्रथम नागरिक की सुविधाएं बिना किसी खतरे के पाने के लिए घुसपैठ करने लगा।

अपनी संख्या बढ़ा कर देश पर राज करने के सपने संजोये कुछ मुस्लिम नेताओं और कुछ निरपेक्षी हिन्दू नेताओं ने  इन्हें अपने अपने क्षेत्रों में बसाना और इनके आधार और निवास प्रमाण तक बनवाना शुरू कर दिया। फलस्वरूप देश में मुस्लिमों का जनसंख्या में, बंटवारे के समय का प्रतिशत 9.5 से बढ़ कर कागजी रूप में 15 और वास्तविक रूप में 20 से 25 प्रतिशत तक हो गया। हद तो तब हो गयी जब कश्मीर का मुस्लिम बहुल चरित्र बनाने और जम्मू का हिन्दू बहुल चरित्र बिगाड़ने के लिए जम्मू नगर में फटाफट वन भूमि को आवासीय घोषित कर पिचानवे हजार रोहिंग्या मुसलमानों को बसा दिया गया। उनके राशनकार्ड और आधार कार्ड भी बना दिए गये। विचारणीय प्रश्न है कि म्यांमार से ढाई हजार किलो मीटर दूर वे पूरे भारत को लांघ कर जम्मू कैसे पहुंचे और उन्हें मुस्लिम बहुल घाटी में न बसा कर जम्मू में ही क्यों बसाया गया। अगर हम गंभीरता से सोचें तो यह निश्चित रूप से एक दूरगामी रणनीति का हिस्सा है।

आजादी के बाद भारत के सुरक्षित परिप्रेक्ष्य में मुसलमानों से भारतीय अस्मिता में एकाकार हो जाने की अपेक्षा स्वाभाविक थी लेकिन यदि मुसलमान सेक्युलर हो जाते तो उन्हें एक वोट बैंक बनाए रखने की कांग्रेसी योजना बेकार हो जाती। इसलिए जरूरी था कि उनकी अलग बस्तियां हों, अलग पहचान और अलग संस्थान बनाए जाएं।  हिन्दुओं के समान मुसलमानों की समस्याएं शिक्षा, रोजगार की ही तो हैं। भारतीय मुसलमान भी तो मलेशिया, इंडोनेशिया के मुसलमानों की मलय या इंडोनेशियाई संस्कृति के समान अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व कर सकते थे। वे भी इंडोनेशिया की तरह राम को अपना पूर्वज मान सकते थे पर वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकारों ने इतिहास के कुछ पन्नों पर कालिख पोत कर उन्हें अलग कर दिया और भारतीय मुसलमानों का असली अतीत छुपा कर उन्हें अरबों, तुर्को से जोड़ दिया गया।  उन्हें राम मंदिर के विरुद्ध मुकदमे में भी खड़ा होने को उकसाया गया। वस्तुतः मुस्लिम समाज को भारत की संस्कृति और सभ्यता से जोड़ने के प्रयास ही नहीं किये गये। चालाक राजनीतिबाजों की आवश्यकताओं ने साझा संस्कृति को विकसित ही नहीं होने दिया।

आजादी से पहले इस अलगाव के लिए हम अंग्रेजों और कुछ विख्यात मुस्लिम नेताओं को इसका कारक मान कर सब्र कर सकते हैं किन्तु आजादी के बाद तो धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े अलम्बरदार नेहरू भारत के भाग्य विधाता थे। अंग्रेजों की तमाम सुविधाओं से युक्त जेल में ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ लिखते नेहरू को और सबकी यादें तो रहीं,  हाकिम खां सूर, इब्राहिम गार्दी जो महाराणा और मराठों के सेनाओं में लड़ते हुए शहीद हुए थे, की याद कभी क्यों नहीं आई। दारा शिकोह की धर्मनिरपेक्षता के बारे में एक पंक्ति तक लिखना उचित नहीं समझा। भारतीय संस्कृति-साहित्य का अभिन्न अंग कबीर, रसखान, बाबा फरीद, दादू को उन्होंने कितना जाना, कितना लिखा? और क्यों नहीं लिखा?। उन्होंने अब्दुर्रहीम खानखाना को पढने और उनके बारे में विस्तार से लिखने की जहमत क्यों नहीं उठाई। मुस्लिम समाज में भारतीय इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीयता का भाव जागृत करने के लिए कुछ क्यों नहीं किया। अगर वे चाहते तो भारतीय मुस्लिम समाज को राष्ट्रीय एकता की सबसे मजबूत कड़ी के रूप में ढाल सकते थे। वे यह तो बता सकते थे कि अगर भारत टूटा तो सोचो, तुम कितने टुकड़ों में होगे। हर  टुकड़े में तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी भारत की विरासत नहीं होगी लेकिन उन्होंने शायद अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों के चलते ऐसा बिलकुल नहीं किया। फलस्वरूप मुसलमान भारतीयता से दूर अपनी संस्कृति खोजता एक वोट बैंक बनता गया। भारतीय मुस्लिम समाज राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में अपनी मूल समस्या पाकिस्तान के मुस्लिम राष्ट्र में अपनी छवि देखता रहा। दुविधाग्रस्त ही रहा।

आरिफ मुहम्मद खान के रूप में एक ऐसा मुस्लिम नेता कांग्रेस को मिला भी था जिसे हिन्दू-मुस्लिम एकता के रूप में प्रतिस्थापित किया जा सकता था मगर कट्टरपंथियों के चलते उन्हें अपमानित किया गया और वे कांग्रेस से अलग हो गये। रफी अहमद किदवई जैसे नेता दोबारा आ नहीं सकते थे। इसलिए वे समस्याएं जिन्हें और उलझाकर नेहरू और उनकी विरासत विदा हुयी थी के समाधान का अवसर जब अब जाकर शुरू हुआ और अनुच्छेद 370 जो इतिहास का हिस्सा हो चुका है। तीन तलाक जैसी विकराल समस्या का जब समाधान हो चुका है। आये दिन  आतंकवाद की घटनाओं से रक्तरंजित भारत आज सशक्त भारत के रूप में बदल चुका है तो अपनी अस्मिता पर चोट की दुहाई देकर मुसलमान सड़कों पर उतर आया है। राष्ट्रीय सम्पत्ति को हानि पहुंचा रहा है। महीनों महीनों तक सडकें जाम कर अन्य लोगों के सब्र की परीक्षा ले रहा है। विडम्बना यह है कि आज भी कुछ कांग्रेसी और बामपंथी राजनीतिबाज बजाय उन्हें समझाने के उन्हें उकसा रहे हैं। स्थिति को मोदी विरोध के चलते और बदतर करने के प्रयास कर रहे हैं।

वस्तुतः आज का मुस्लिम एक दोराहे पर खड़ा है। एक रास्ता उसे कट्टरवाद की ओर ले जाता है और दूसरा रास्ता उसे देश की संस्कृति के साथ एकाकार होकर अमन के साथ जीने का अवसर प्रदान करता है। अब सोचना मुसलमान को स्वयं है कि वह वोट बैंक के रूप में कुछ स्वजातीय और कुछ विजातीय राजनैतिक विचारधाराओं के हाथों की कठपुतली बने या फिर राष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष नीति को अंधकट्टरवाद की विचारधारा पर हावी कर, देश का एक सामान्य नागरिक बन विभिन्नता में एकता की भारतीय संस्कृति में रच बस कर एकाकार होना पसंद करे। 



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